अपनी तरफ़ तो मैं भी नहीं हूँ अभी तलक
और उस तरफ़ तमाम ज़माना उसी का है
अमीर इमाम
धूप में कौन किसे याद किया करता है
पर तिरे शहर में बरसात तो होती होगी
अमीर इमाम
इस बार राह-ए-इश्क़ कुछ इतनी तवील थी
उस के बदन से हो के गुज़रना पड़ा मुझे
अमीर इमाम
जो शाम होती है हर रोज़ हार जाता हूँ
मैं अपने जिस्म की परछाइयों से लड़ते हुए
अमीर इमाम
न आबशार न सहरा लगा सके क़ीमत
हम अपनी प्यास को ले कर दहन में लौट आए
अमीर इमाम
पहले सहरा से मुझे लाया समुंदर की तरफ़
नाव पर काग़ज़ की फिर मुझ को सवार उस ने किया
अमीर इमाम
शहर में सारे चराग़ों की ज़िया ख़ामोश है
तीरगी हर सम्त फैला कर हवा ख़ामोश है
अमीर इमाम
वो मारका कि आज भी सर हो नहीं सका
मैं थक के मुस्कुरा दिया जब रो नहीं सका
अमीर इमाम
ये कार-ए-ज़िंदगी था तो करना पड़ा मुझे
ख़ुद को समेटने में बिखरना पड़ा मुझे
अमीर इमाम