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ये कार-ए-ज़िंदगी था तो करना पड़ा मुझे | शाही शायरी
ye kar-e-zindagi tha to karna paDa mujhe

ग़ज़ल

ये कार-ए-ज़िंदगी था तो करना पड़ा मुझे

अमीर इमाम

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ये कार-ए-ज़िंदगी था तो करना पड़ा मुझे
ख़ुद को समेटने में बिखरना पड़ा मुझे

फिर ख़्वाहिशों को कोई सराए न मिल सकी
इक और रात ख़ुद में ठहरना पड़ा मुझे

महफ़ूज़ ख़ामुशी की पनाहों में था मगर
गूँजी इक ऐसी चीख़ कि डरना पड़ा मुझे

इस बार राह-ए-इश्क़ कुछ इतनी तवील थी
उस के बदन से हो के गुज़रना पड़ा मुझे

पूरी अमीर इमाम की तस्वीर जब हुई
उस में लहू का रंग भी भरना पड़ा मुझे