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कि जैसे कोई मुसाफ़िर वतन में लौट आए | शाही शायरी
ki jaise koi musafir watan mein lauT aae

ग़ज़ल

कि जैसे कोई मुसाफ़िर वतन में लौट आए

अमीर इमाम

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कि जैसे कोई मुसाफ़िर वतन में लौट आए
हुई जो शाम तो फिर से थकन में लौट आए

न आबशार न सहरा लगा सके क़ीमत
हम अपनी प्यास को ले कर दहन में लौट आए

सफ़र तवील बहुत था किसी की आँखों तक
तो उस के बाद हम अपने बदन में लौट आए

कभी गए थे हवाओं का सामना करने
सभी चराग़ उसी अंजुमन में लौट आए

किसी तरह तो फ़ज़ाओं की ख़ामुशी टूटे
तो फिर से शोर-ए-सलासिल चलन में लौट आए

'अमीर' इमाम बताओ ये माजरा क्या है
तुम्हारे शेर उसी बाँकपन में लौट आए