बोसा आँखों का जो माँगा तो वो हँस कर बोले
देख लो दूर से खाने के ये बादाम नहीं
अमानत लखनवी
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जी चाहता है साने-ए-क़ुदरत पे हूँ निसार
बुत को बिठा के सामने याद-ए-ख़ुदा करूँ
अमानत लखनवी
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किस तरह 'अमानत' न रहूँ ग़म से मैं दिल-गीर
आँखों में फिरा करती है उस्ताद की सूरत
अमानत लखनवी
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साँवले तन पे क़बा है जो तिरे भारी है
लाला कहता है चमन में कि ये 'गिरधारी' है
अमानत लखनवी
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