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सफ़र नया था न कोई नया मुसाफ़िर था | शाही शायरी
safar naya tha na koi naya musafir tha

ग़ज़ल

सफ़र नया था न कोई नया मुसाफ़िर था

अहमद मुश्ताक़

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सफ़र नया था न कोई नया मुसाफ़िर था
वही तलब थी वही आश्ना मुसाफ़िर था

दयार-ए-दर्द की पुर-हौल रहगुज़ारों में
तिरा ख़याल कोई दूसरा मुसाफ़िर था

जो देखता हूँ तो दीवार-ए-आइना के उधर
मिरी ही शक्ल का इक बे-नवा मुसाफ़िर था

नज़र मिली थी घड़ी भर को फिर मिला न कभी
न जाने कौन था किस देस का मुसाफ़िर था