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रुख़्सत-ए-शब का समाँ पहले कभी देखा न था | शाही शायरी
ruKHsat-e-shab ka saman pahle kabhi dekha na tha

ग़ज़ल

रुख़्सत-ए-शब का समाँ पहले कभी देखा न था

अहमद मुश्ताक़

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रुख़्सत-ए-शब का समाँ पहले कभी देखा न था
इतना रौशन आसमाँ पहले कभी देखा न था

दूर तक फैला हुआ सहरा नज़र आया मुझे
एक ज़र्रा भी जहाँ पहले कभी देखा न था

दीदनी था मौज-ए-दरिया का नशात बे-पनाह
जल्वा-ए-आब-ए-रवाँ पहले कभी देखा न था

अहल-ए-दुनिया तो हमेशा ही से ऐसे थे मगर
इश्क़ इतना ना-तवाँ पहले कभी देखा न था

दिल परेशाँ हो गया रंग-ए-ज़वाल-ए-हुस्न से
आग देखी थी धुआँ पहले कभी देखा न था

इस क़दर हैराँ न हो आँखों में आँसू देख कर
तुझ को इतना मेहरबाँ पहले कभी देखा न था