रात फिर रंग पे थी उस के बदन की ख़ुशबू
दिल की धड़कन थी कि उड़ते थे लहू में जुगनू
जैसे हर शय हो किसी ख़्वाब-ए-फ़रामोश में गुम
चाँद चमका न किसी याद ने बदला पहलू
सुब्ह के ज़ीना-ए-ख़ामोश पे क़दमों के गुलाब
शाम की बंद हवेली में हँसी का जादू
सेहन के सब्ज़ अंधेरे में दमकते रुख़्सार
साफ़ बिस्तर के उजाले में चमकते गेसू
झिलमिलाते रहे वो ख़्वाब जो पूरे न हुए
दर्द बेदार टपकता रहा आँसू आँसू
ग़ज़ल
रात फिर रंग पे थी उस के बदन की ख़ुशबू
अहमद मुश्ताक़