पता अब तक नहीं बदला हमारा
वही घर है वही क़िस्सा हमारा
वही टूटी हुई कश्ती है अपनी
वही ठहरा हुआ दरिया हमारा
ये मक़्तल भी है और कुंज-ए-अमाँ भी
ये दिल ये बे-निशाँ कमरा हमारा
किसी जानिब नहीं खुलते दरीचे
कहीं जाता नहीं रस्ता हमारा
हम अपनी धूप में बैठे हैं 'मुश्ताक़'
हमारे साथ है साया हमारा
ग़ज़ल
पता अब तक नहीं बदला हमारा
अहमद मुश्ताक़