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इस अंधे क़ैद-ख़ाने में कहीं रौज़न नहीं होता | शाही शायरी
is andhe qaid-KHane mein kahin rauzan nahin hota

ग़ज़ल

इस अंधे क़ैद-ख़ाने में कहीं रौज़न नहीं होता

अहमद कमाल परवाज़ी

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इस अंधे क़ैद-ख़ाने में कहीं रौज़न नहीं होता
बिखर जाते तबीअ'त में अगर बचपन नहीं होता

तुझे क्या इल्म के हर चोट पे तारे निकलते हैं
वो आदम ही नहीं जिस का कोई दुश्मन नहीं होता

उन्हें भी हम ने सय्यारों से वापस आते देखा है
जहाँ बस इश्क़ होता है कोई ईंधन नहीं होता

हमारी ना-मुरादी में वफ़ादारी भी शामिल है
अगर कुछ और होते तो ये पैराहन नहीं होता

बहुत मम्नून हूँ फिर भी अँधेरे कम नहीं होते
अगर तुम मेरे घर होते तो वो रौशन नहीं होता