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धड़कती रहती है दिल में तलब कोई न कोई | शाही शायरी
dhaDakti rahti hai dil mein talab koi na koi

ग़ज़ल

धड़कती रहती है दिल में तलब कोई न कोई

अहमद मुश्ताक़

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धड़कती रहती है दिल में तलब कोई न कोई
पुकारता है मुझे रोज़-ओ-शब कोई न कोई

शब-ए-अलम तिरे सादा दिलों पे क्या गुज़री
सहर हुई तो सुनाएगा सब कोई न कोई

ज़बान बंद है आँखों के बंद रहने तक
खुलेगी आँख तो खोलेगा लब कोई न कोई

हवा-ए-साज़-ए-अलम लाख एहतियात करे
लरज़ ही उठता है तार-ए-तरब कोई न कोई

घने बनों में भी रस्ता निकल ही आता है
बना ही देती है क़ुदरत सबब कोई न कोई