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भागने का कोई रस्ता नहीं रहने देते | शाही शायरी
bhagne ka koi rasta nahin rahne dete

ग़ज़ल

भागने का कोई रस्ता नहीं रहने देते

अहमद मुश्ताक़

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भागने का कोई रस्ता नहीं रहने देते
कोई दर कोई दरीचा नहीं रहने देते

आसमाँ पर से मिटा देते हैं तारों का सुराग़
रेत पर नक़्श-ए-कफ़-ए-पा नहीं रहने देते

कोई तस्वीर मुकम्मल नहीं होने पाती
धूप देते हैं तो साया नहीं रहने देते

पहले भर देते हैं सामान-ए-दो-आलम दिल में
फिर किसी शय की तमन्ना नहीं रहने देते

शहर-ए-कोराँ में भी आईना फ़रोश आते हैं
बे-तजल्ली कोई क़र्या नहीं रहने देते

तूर-ए-सीना हो कि आतिश-कदा-ए-सोज़-ए-निहाँ
राख रह जाती है शोअ'ला नहीं रहने देते