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याद-ए-Raftagan शायरी | शाही शायरी

याद-ए-Raftagan

22 शेर

इक ज़माना था कि सब एक जगह रहते थे
और अब कोई कहीं कोई कहीं रहता है

अहमद मुश्ताक़




जिस की साँसों से महकते थे दर-ओ-बाम तिरे
ऐ मकाँ बोल कहाँ अब वो मकीं रहता है

अहमद मुश्ताक़




वो वक़्त भी आता है जब आँखों में हमारी
फिरती हैं वो शक्लें जिन्हें देखा नहीं होता

अहमद मुश्ताक़




जो मिरी शबों के चराग़ थे जो मिरी उमीद के बाग़ थे
वही लोग हैं मिरी आरज़ू वही सूरतें मुझे चाहिएँ

ऐतबार साजिद




मोहब्बतें भी उसी आदमी का हिस्सा थीं
मगर ये बात पुराने ज़माने वाली है

असअ'द बदायुनी




कितने अच्छे लोग थे क्या रौनक़ें थीं उन के साथ
जिन की रुख़्सत ने हमारा शहर सूना कर दिया

फ़ातिमा हसन




अब याद-ए-रफ़्तगाँ की भी हिम्मत नहीं रही
यारों ने कितनी दूर बसाई हैं बस्तियाँ

फ़िराक़ गोरखपुरी