ख़्वाब गिरवी रख दिए आँखों का सौदा कर दिया
क़र्ज़-ए-दिल क्या क़र्ज़-ए-जाँ भी आज चुकता कर दिया
ग़ैर को इल्ज़ाम क्यूँ दें दोस्त से शिकवा नहीं
अपने ही हाथों किया जो कुछ भी जैसा कर दिया
कुछ ख़बर भी हो न पाई इस दयार-ए-इश्क़ में
कौन यूसुफ़ हो गया किस को ज़ुलेख़ा कर दिया
दिल के दरवाज़े पे यादें शोर जब बनने लगीं
धड़कनों का नाम दे कर बोझ हल्का कर दिया
कितने अच्छे लोग थे क्या रौनक़ें थीं उन के साथ
जिन की रुख़्सत ने हमारा शहर सूना कर दिया
अपने प्यारों को बचाया दर्द की हर मौज से
आँख में सैलाब रोका दिल को दरिया कर दिया
फूल, पौदे, पेड़, बच्चे घर का आँगन और तुम
ख़्वाहिशों के नाम पर इन सब को यकजा कर दिया
ग़म नहीं ला-हासिली का इश्क़ का हासिल है ये
ऐ हिसाब-ए-ज़िंदगी तुझ को तो पूरा कर दिया
हिज्र से हिजरत तलक हर दुख से समझौता किया
भीड़ में रह के भी मैं ने ख़ुद को तन्हा कर दिया
ये ज़मीं 'हसरत' की है इस पर क़दम रक्खा तो फिर
इतनी जुरअत हो गई अर्ज़-ए-तमन्ना कर दिया
ग़ज़ल
ख़्वाब गिरवी रख दिए आँखों का सौदा कर दिया
फ़ातिमा हसन