वो सर्दियों की धूप की तरह ग़ुरूब हो गया
लिपट रही है याद जिस्म से लिहाफ़ की तरह
मुसव्विर सब्ज़वारी
वो गले से लिपट के सोते हैं
आज-कल गर्मियाँ हैं जाड़ों में
मुज़्तर ख़ैराबादी
इक बर्फ़ सी जमी रहे दीवार-ओ-बाम पर
इक आग मेरे कमरे के अंदर लगी रहे
सालिम सलीम
लबों में आ के क़ुल्फ़ी हो गए अशआर सर्दी में
ग़ज़ल कहना भी अब तो हो गया दुश्वार सर्दी में
सरफ़राज़ शाहिद
मिरे सूरज आ! मिरे जिस्म पे अपना साया कर
बड़ी तेज़ हवा है सर्दी आज ग़ज़ब की है
शहरयार
अब उदास फिरते हो सर्दियों की शामों में
इस तरह तो होता है इस तरह के कामों में
शोएब बिन अज़ीज़
जब चली ठंडी हवा बच्चा ठिठुर कर रह गया
माँ ने अपने ला'ल की तख़्ती जला दी रात को
सिब्त अली सबा