जलते जलते बुझ गई इक मोम-बत्ती रात को
मर गई फ़ाक़ा-ज़दा मासूम बच्ची रात को
आँधियों से क्या बचाती फूल को काँटों की बाड़
सेहन में बिखरी हुई थी पत्ती पत्ती रात को
कितना बोसीदा दुरीदा पैरहन है ज़ेब-ए-तन
वो जो चर्ख़ा काटती रहती है लड़की रात को
सेहन में इक शोर सा हर आँख है हैरत-ज़दा
चूड़ियाँ सब तोड़ दीं दुल्हन ने पहली रात को
जब चली ठंडी हवा बच्चा ठिठुर कर रह गया
माँ ने अपने लाल की तख़्ती जला दी रात को
वक़्त तो हर एक दर पर दस्तकें देता रहा
एक साअत के लिए जागी न बस्ती रात को
मर्ग़-ज़ार-ए-शायरी में गुम रहा 'सब्त-ए-अली'
सो गई रह देखते बीमार बीवी रात को
ग़ज़ल
जलते जलते बुझ गई इक मोम-बत्ती रात को
सिब्त अली सबा