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साकी शायरी | शाही शायरी

साकी

22 शेर

चश्म-ए-साक़ी मुझे हर गाम पे याद आती है
रास्ता भूल न जाऊँ कहीं मयख़ाने का

इक़बाल सफ़ी पूरी




कोई समझाए कि क्या रंग है मयख़ाने का
आँख साक़ी की उठे नाम हो पैमाने का

इक़बाल सफ़ी पूरी




मैं तो जब मानूँ मिरी तौबा के बाद
कर के मजबूर पिला दे साक़ी

जिगर मुरादाबादी




साक़ी मिरे भी दिल की तरफ़ टुक निगाह कर
लब-तिश्ना तेरी बज़्म में ये जाम रह गया

ख़्वाजा मीर 'दर्द'




किसी की बज़्म के हालात ने समझा दिया मुझ को
कि जब साक़ी नहीं अपना तो मय अपनी न जाम अपना

महशर इनायती




फ़रेब-ए-साक़ी-ए-महफ़िल न पूछिए 'मजरूह'
शराब एक है बदले हुए हैं पैमाने

मजरूह सुल्तानपुरी




पड़ गई क्या निगह-ए-मस्त तिरे साक़ी की
लड़खड़ाते हुए मय-ख़्वार चले आते हैं

तअशशुक़ लखनवी