निगाह-ए-साक़ी-ए-ना-मेहरबाँ ये क्या जाने
कि टूट जाते हैं ख़ुद दिल के साथ पैमाने
मिली जब उन से नज़र बस रहा था एक जहाँ
हटी निगाह तो चारों तरफ़ थे वीराने
हयात लग़्ज़िश-ए-पैहम का नाम है साक़ी
लबों से जाम लगा भी सकूँ ख़ुदा जाने
तबस्सुमों ने निखारा है कुछ तो साक़ी के
कुछ अहल-ए-ग़म के सँवारे हुए हैं मय-ख़ाने
ये आग और नहीं दिल की आग है नादाँ
चराग़ हो कि न हो जल-बुझेंगे परवाने
फ़रेब-ए-साक़ी-ए-महफ़िल न पूछिए 'मजरूह'
शराब एक है बदले हुए हैं पैमाने
ग़ज़ल
निगाह-ए-साक़ी-ए-ना-मेहरबाँ ये क्या जाने
मजरूह सुल्तानपुरी