इतना सच बोल कि होंटों का तबस्सुम न बुझे
रौशनी ख़त्म न कर आगे अँधेरा होगा
निदा फ़ाज़ली
समझा है हक़ को अपने ही जानिब हर एक शख़्स
ये चाँद उस के साथ चला जो जिधर गया
पंडित दया शंकर नसीम लखनवी
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मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी
वो झूट बोलेगा और ला-जवाब कर देगा
परवीन शाकिर
वाक़िआ कुछ भी हो सच कहने में रुस्वाई है
क्यूँ न ख़ामोश रहूँ अहल-ए-नज़र कहलाऊँ
शहज़ाद अहमद
आसमानों से फ़रिश्ते जो उतारे जाएँ
वो भी इस दौर में सच बोलें तो मारे जाएँ
उम्मीद फ़ाज़ली
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