जब हो चुकी शराब तो मैं मस्त मर गया
शीशे के ख़ाली होते ही पैमाना भर गया
ने क़ासिद-ए-ख़याल न पैक-ए-नज़र गया
उन तक मैं अपनी आप ही ले कर ख़बर गया
रूह-ए-रुवान-ओ-जिस्म की सूरत मैं क्या कहूँ
झोंका हवा का था इधर आया उधर गया
तूफ़ान-ए-नूह इस में हो या शोर-ए-हश्र हो
होता जो कुछ है होगा जो गुज़रा गुज़र गया
समझा है हक़ को अपने ही जानिब हर एक शख़्स
ये चाँद उस के साथ चला जो जिधर गया
शोरीदगी से मेरी यहाँ तक वो तंग थे
रूठा जो मैं तो ख़ैर मनाई कि शर गया
मैं ने भी आँखें देखी हैं परियों की जाओ भी
तुम ने दिखाई आँख मुझे और मैं डर गया
गुज़रा जहाँ से मैं तो कहा सुन के यार ने
क़िस्सा गया फ़साद गया दर्द-ए-सर गया
काग़ज़ सियाह करते हो किस के लिए 'नसीम'
आया जवाब-ए-ख़त तुम्हें और नामा-बर गया
ग़ज़ल
जब हो चुकी शराब तो मैं मस्त मर गया
पंडित दया शंकर नसीम लखनवी