हर्फ़ अपने ही मआनी की तरह होता है
प्यास का ज़ाइक़ा पानी की तरह होता है
फ़ैसल अजमी
जिसे भी प्यास बुझानी हो मेरे पास रहे
कभी भी अपने लबों से छलकने लगता हूँ
फ़रहत एहसास
दो दरिया भी जब आपस में मिलते हैं
दोनों अपनी अपनी प्यास बुझाते हैं
फ़ारिग़ बुख़ारी
साजन हम से मिले भी लेकिन ऐसे मिले कि हाए
जैसे सूखे खेत से बादल बिन बरसे उड़ जाए
जमीलुद्दीन आली
कमाल-ए-तिश्नगी ही से बुझा लेते हैं प्यास अपनी
इसी तपते हुए सहरा को हम दरिया समझते हैं
जिगर मुरादाबादी
साक़ी मिरे भी दिल की तरफ़ टुक निगाह कर
लब-तिश्ना तेरी बज़्म में ये जाम रह गया
ख़्वाजा मीर 'दर्द'
फिर इस के बाद हमें तिश्नगी रहे न रहे
कुछ और देर मुरव्वत से काम ले साक़ी
कँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर