आज पी कर भी वही तिश्ना-लबी है साक़ी
लुत्फ़ में तेरे कहीं कोई कमी है साक़ी
आल-ए-अहमद सूरूर
वो जो प्यासा लगता था सैलाब-ज़दा था
पानी पानी कहते कहते डूब गया है
आनिस मुईन
वो सामने हैं मगर तिश्नगी नहीं जाती
ये क्या सितम है कि दरिया सराब जैसा है
अहमद फ़राज़
नदिया ने मुझ से कहा मत आ मेरे पास
पानी से बुझती नहीं अंतर्मन की प्यास
अख़्तर नज़्मी
रूह किस मस्त की प्यासी गई मय-ख़ाने से
मय उड़ी जाती है साक़ी तिरे पैमाने से
दाग़ देहलवी
साक़िया तिश्नगी की ताब नहीं
ज़हर दे दे अगर शराब नहीं
दाग़ देहलवी
अब तो उतनी भी मयस्सर नहीं मय-ख़ाने में
जितनी हम छोड़ दिया करते थे पैमाने में
the tavern does not even give that much wine to me
that I was wont to waste in the goblet casually
दिवाकर राही