उठा सुराही ये शीशा वो जाम ले साक़ी
फिर इस के बाद ख़ुदा का भी नाम ले साक़ी
फिर इस के बाद हमें तिश्नगी रहे न रहे
कुछ और देर मुरव्वत से काम ले साक़ी
तिरे हुज़ूर में होश-ओ-ख़िरद से क्या हासिल
कभी तो होश-ओ-ख़िरद से भी काम ले साक़ी
फिर इस के बाद जो होगा वो देखा जाएगा
अभी तो पीने पिलाने से काम ले साक़ी
हमें है कैफ़ ओ नशात-ए-सुरूर से मतलब
नहीं है मय तो निगाहों से काम ले साक़ी
ये और कुछ भी हों काफ़िर नहीं हैं तेरे रिंद
तो बाद-ए-जाम ख़ुदा का भी नाम ले साक़ी
कहो ये ख़िज़्र से भटके न यूँ ज़माने में
यहाँ से आब-ए-बक़ा-ए-दवाम ले साक़ी
सहर का काम नहीं मय-कदे की दुनिया में
सहर का नाम न ले लुत्फ़-ए-शाम ले साक़ी
कभी था ज़ीनत-ए-महफ़िल वो रिंद-ए-दरिया नोश
ब-वक़्त-ए-दौर 'सहर' का भी नाम ले साक़ी
ग़ज़ल
उठा सुराही ये शीशा वो जाम ले साक़ी
कँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर