तिरी आरज़ू तिरी जुस्तुजू में भटक रहा था गली गली
मिरी दास्ताँ तिरी ज़ुल्फ़ है जो बिखर बिखर के सँवर गई
बशीर बद्र
नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
पा सकेंगे न उम्र भर जिस को
जुस्तुजू आज भी उसी की है
हबीब जालिब
मिरी तरह से मह-ओ-महर भी हैं आवारा
किसी हबीब की ये भी हैं जुस्तुजू करते
हैदर अली आतिश
मोहब्बत एक तरह की निरी समाजत है
मैं छोड़ूँ हूँ तिरी अब जुस्तुजू हुआ सो हुआ
हसरत अज़ीमाबादी
दर-ब-दर मारा-फिरा मैं जुस्तुजू-ए-यार में
ज़ाहिद-ए-काबा हुआ रहबान-ए-बुत-ख़ाना हुआ
हातिम अली मेहर
जुस्तुजू करनी हर इक अम्र में नादानी है
जो कि पेशानी पे लिक्खी है वो पेश आनी है
इमाम बख़्श नासिख़