दुश्मनों ने जो दुश्मनी की है
दोस्तों ने भी क्या कमी की है
ख़ामुशी पर हैं लोग ज़ेर-ए-इताब
और हम ने तो बात भी की है
मुतमइन है ज़मीर तो अपना
बात सारी ज़मीर ही की है
अपनी तो दास्ताँ है बस इतनी
ग़म उठाए हैं शाएरी की है
अब नज़र में नहीं है एक ही फूल
फ़िक्र हम को कली कली की है
पा सकेंगे न उम्र भर जिस को
जुस्तुजू आज भी उसी की है
जब मह-ओ-महर बुझ गए 'जालिब'
हम ने अश्कों से रौशनी की है
ग़ज़ल
दुश्मनों ने जो दुश्मनी की है
हबीब जालिब