वो और होंगे जो कार-ए-हवस पे ज़िंदा हैं
मैं उस की धूप से साया बदल के आया हूँ
अकबर मासूम
कब धूप चली शाम ढली किस को ख़बर है
इक उम्र से मैं अपने ही साए में खड़ा हूँ
अख़्तर होशियारपुरी
दीवार उन के घर की मिरी धूप ले गई
ये बात भूलने में ज़माना लगा मुझे
असग़र मेहदी होश
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ज़ाविया धूप ने कुछ ऐसा बनाया है कि हम
साए को जिस्म की जुम्बिश से जुदा देखते हैं
आसिम वास्ती
ये धूप तो हर रुख़ से परेशाँ करेगी
क्यूँ ढूँड रहे हो किसी दीवार का साया
अतहर नफ़ीस
धूप बढ़ते ही जुदा हो जाएगा
साया-ए-दीवार भी दीवार से
बहराम तारिक़
फिर याद बहुत आएगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम
जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा
बशीर बद्र