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दामन-ए-गुल में कहीं ख़ार छुपा देखते हैं | शाही शायरी
daman-e-gul mein kahin Khaar chhupa dekhte hain

ग़ज़ल

दामन-ए-गुल में कहीं ख़ार छुपा देखते हैं

आसिम वास्ती

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दामन-ए-गुल में कहीं ख़ार छुपा देखते हैं
आप अच्छा नहीं करते कि बुरा देखते हैं

हम से वो पूछ रहे हैं कि कहाँ है और हम
जिस तरफ़ आँख उठाते हैं ख़ुदा देखते हैं

कुछ नहीं है कि जो है वो भी नहीं है मौजूद
हम जो यूँ महव-ए-तमाशा हैं तो क्या देखते हैं

लोग कहते हैं कि वो शख़्स है ख़ुशबू जैसा
साथ शायद उसे ले आए हवा देखते हैं

ज़ाविया धूप ने कुछ ऐसा बनाया है कि हम
साए को जिस्म की जुम्बिश से जुदा देखते हैं

इस क़दर ताज़गी रखी है नज़र में हमने
कोई मंज़र हो पुराना तो नया देखते हैं

अब कहीं शहर में 'आसिम' है न 'ग़ालिब' कोई
किस के घर जाए ये सैलाब-ए-बला देखते हैं