धमका के बोसे लूँगा रुख़-ए-रश्क-ए-माह का
चंदा वसूल होता है साहब दबाव से
अकबर इलाहाबादी
बोसा आँखों का जो माँगा तो वो हँस कर बोले
देख लो दूर से खाने के ये बादाम नहीं
अमानत लखनवी
बोसा लिया जो उस लब-ए-शीरीं का मर गए
दी जान हम ने चश्मा-ए-आब-ए-हयात पर
अमीर मीनाई
अहद के बअ'द लिए बोसे दहन के इतने
कि लब-ए-ज़ूद-पशीमाँ को मुकरने न दिया
अमीरुल्लाह तस्लीम
दिल-लगी में हसरत-ए-दिल कुछ निकल जाती तो है
बोसे ले लेते हैं हम दो-चार हँसते बोलते
अमीरुल्लाह तस्लीम
बे-ख़ुदी में ले लिया बोसा ख़ता कीजे मुआफ़
ये दिल-ए-बेताब की सारी ख़ता थी मैं न था
बहादुर शाह ज़फ़र
क्या ताब क्या मजाल हमारी कि बोसा लें
लब को तुम्हारे लब से मिला कर कहे बग़ैर
बहादुर शाह ज़फ़र