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गर यही है आदत-ए-तकरार हँसते बोलते | शाही शायरी
gar yahi hai aadat-e-takrar hanste bolte

ग़ज़ल

गर यही है आदत-ए-तकरार हँसते बोलते

अमीरुल्लाह तस्लीम

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गर यही है आदत-ए-तकरार हँसते बोलते
मुँह की इक दिन खाएँगे अग़्यार हँसते बोलते

थी तमन्ना बाग़-ए-आलम में गुल ओ बुलबुल की तरह
बैठ कर हम तुम कहीं ऐ यार हँसते बोलते

मेरी क़िस्मत से ज़बान-ए-तीर भी गोया नहीं
वर्ना क्या क्या ज़ख़्म-ए-दामन-दार हँसते बोलते

दिल-लगी में हसरत-ए-दिल कुछ निकल जाती तो है
बोसे ले लेते हैं हम दो-चार हँसते बोलते

आज उज़्र-ए-इत्तिक़ा 'तस्लीम' कल तक यार से
आप को देखा सर-ए-बाज़ार हँसते बोलते