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2 लाइन शायरी शायरी | शाही शायरी

2 लाइन शायरी

22761 शेर

जलता है अब तलक तिरी ज़ुल्फ़ों के रश्क से
हर-चंद हो गया है चमन का चराग़ गुल

आबरू शाह मुबारक




जो कि बिस्मिल्लाह कर खाए तआम
तो ज़रर नईं गो कि होवे बिस मिला

आबरू शाह मुबारक




कभी बे-दाम ठहरावें कभी ज़ंजीर करते हैं
ये ना-शाएर तिरी ज़ुल्फ़ाँ कूँ क्या क्या नाम धरते हैं

आबरू शाह मुबारक




कम मत गिनो ये बख़्त-सियाहों का रंग-ए-ज़र्द
सोना वही जो होवे कसौटी कसा हुआ

आबरू शाह मुबारक




ख़ुद अपनी आदमी को बड़ी क़ैद-ए-सख़्त है
फोड़ आईना व तोड़ सिकंदर की सद के तईं

आबरू शाह मुबारक




ख़ुदावंदा करम कर फ़ज़्ल कर अहवाल पर मेरे
नज़र कर आप पर मत कर नज़र अफ़आल पर मेरे

आबरू शाह मुबारक




किया है चाक दिल तेग़-ए-तग़ाफ़ुल सीं तुझ अँखियों नीं
निगह के रिश्ता ओ सोज़न सूँ पलकाँ के रफ़ू कीजे

आबरू शाह मुबारक