फ़रेब-ख़ुर्दा है इतना कि मेरे दिल को अभी
तुम आ चुके हो मगर इंतिज़ार बाक़ी है
अख़तर मुस्लिमी
हाँ ये भी तरीक़ा अच्छा है तुम ख़्वाब में मिलते हो मुझ से
आते भी नहीं ग़म-ख़ाने तक वादा भी वफ़ा हो जाता है
अख़तर मुस्लिमी
हर शाख़-ए-चमन है अफ़्सुर्दा हर फूल का चेहरा पज़मुर्दा
आग़ाज़ ही जब ऐसा है तो फिर अंजाम-ए-बहाराँ क्या होगा
अख़तर मुस्लिमी
इंसाफ़ के पर्दे में ये क्या ज़ुल्म है यारो
देते हो सज़ा और ख़ता और ही कुछ है
अख़तर मुस्लिमी
इक़रार-ए-मोहब्बत तो बड़ी बात है लेकिन
इंकार-ए-मोहब्बत की अदा और ही कुछ है
अख़तर मुस्लिमी
जो बा-ख़बर थे वो देते रहे फ़रेब मुझे
तिरा पता जो मिला एक बे-ख़बर से मिला
अख़तर मुस्लिमी
ख़ुशी ही शर्त नहीं लुत्फ़-ए-ज़िंदगी के लिए
मता-ए-ग़म भी ज़रूरी है आदमी के लिए
अख़तर मुस्लिमी