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2 लाइन शायरी शायरी | शाही शायरी

2 लाइन शायरी

22761 शेर

धमका के बोसे लूँगा रुख़-ए-रश्क-ए-माह का
चंदा वसूल होता है साहब दबाव से

अकबर इलाहाबादी




दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते

अकबर इलाहाबादी




डिनर से तुम को फ़ुर्सत कम यहाँ फ़ाक़े से कम ख़ाली
चलो बस हो चुका मिलना न तुम ख़ाली न हम ख़ाली

अकबर इलाहाबादी




दुख़्तर-ए-रज़ ने उठा रक्खी है आफ़त सर पर
ख़ैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ

अकबर इलाहाबादी




एक काफ़िर पर तबीअत आ गई
पारसाई पर भी आफ़त आ गई

अकबर इलाहाबादी




फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं
डोर को सुलझा रहा है और सिरा मिलता नहीं

अकबर इलाहाबादी




ग़म-ख़ाना-ए-जहाँ में वक़अत ही क्या हमारी
इक ना-शुनीदा उफ़ हैं इक आह-ए-बे-असर हैं

अकबर इलाहाबादी