फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं
डोर को सुलझा रहा है और सिरा मिलता नहीं
मअरिफ़त ख़ालिक़ की आलम में बहुत दुश्वार है
शहर-ए-तन में जब कि ख़ुद अपना पता मिलता नहीं
ग़ाफ़िलों के लुत्फ़ को काफ़ी है दुनियावी ख़ुशी
आक़िलों को बे-ग़म-ए-उक़्बा मज़ा मिलता नहीं
कश्ती-ए-दिल की इलाही बहर-ए-हस्ती में हो ख़ैर
नाख़ुदा मिलते हैं लेकिन बा-ख़ुदा मिलता नहीं
ग़ाफ़िलों को क्या सुनाऊँ दास्तान-ए-इश्क़-ए-यार
सुनने वाले मिलते हैं दर्द-आश्ना मिलता नहीं
ज़िंदगानी का मज़ा मिलता था जिन की बज़्म में
उन की क़ब्रों का भी अब मुझ को पता मिलता नहीं
सिर्फ़ ज़ाहिर हो गया सरमाया-ए-ज़ेब-ओ-सफ़ा
क्या तअज्जुब है जो बातिन बा-सफ़ा मिलता नहीं
पुख़्ता तबओं पर हवादिस का नहीं होता असर
कोहसारों में निशान-ए-नक़्श-ए-पा मिलता नहीं
शैख़-साहिब बरहमन से लाख बरतें दोस्ती
बे-भजन गाए तो मंदिर से टिका मिलता नहीं
जिस पे दिल आया है वो शीरीं-अदा मिलता नहीं
ज़िंदगी है तल्ख़ जीने का मज़ा मिलता नहीं
लोग कहते हैं कि बद-नामी से बचना चाहिए
कह दो बे उस के जवानी का मज़ा मिलता नहीं
अहल-ए-ज़ाहिर जिस क़दर चाहें करें बहस-ओ-जिदाल
मैं ये समझा हूँ ख़ुदी में तो ख़ुदा मिलता नहीं
चल बसे वो दिन कि यारों से भरी थी अंजुमन
हाए अफ़्सोस आज सूरत-आश्ना मिलता नहीं
मंज़िल-ए-इशक़-ओ-तवक्कुल मंज़िल-ए-एज़ाज़ है
शाह सब बस्ते हैं याँ कोई गदा मिलता नहीं
बार तकलीफों का मुझ पर बार-ए-एहसाँ से है सहल
शुक्र की जा है अगर हाजत-रवा मिलता नहीं
चाँदनी रातें बहार अपनी दिखाती हैं तो क्या
बे तिरे मुझ को तो लुत्फ़ ऐ मह-लक़ा मिलता नहीं
मानी-ए-दिल का करे इज़हार 'अकबर' किस तरह
लफ़्ज़-ए-मौज़ूँ बहर-ए-कश्फ़-ए-मुद्दआ मिलता नहीं
ग़ज़ल
फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं
अकबर इलाहाबादी