कभी तो उन को हमारा ख़याल आएगा
हम इस उमीद पे तर्क-ए-वफ़ा नहीं करते
शफ़क़त काज़मी
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नई बहार का मुज़्दा बजा सही लेकिन
अभी तो अगली बहारों का ज़ख़्म ताज़ा है
शफ़क़त काज़मी
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देख कर मुझ को तुझे क्यूँ है तहय्युर नासेह
मशरब-ए-इश्क़ है ये मज़हब-ए-इस्लाम नहीं
शाह आसिम
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है अयाँ रू-ए-यार आँखों में
छाई है क्या बहार आँखों में
शाह आसिम
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इस्लाम और कुफ़्र हमारा ही नाम है
काबा कुनिश्त दोनों में अपना मक़ाम है
शाह आसिम
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काफ़िर-ए-इश्क़ हुआ जब से मैं इस दहर में हूँ
है मिरे कुफ़्र से ये दीन और ईमाँ नाज़ाँ
शाह आसिम
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काफ़िर-ए-इश्क़ हुआ जब से मैं इस दहर में हूँ
है मिरे कुफ़्र से ये दीन और ईमाँ नाज़ाँ
शाह आसिम
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