कहती है ऐ 'रियाज़' दराज़ी ये रीश की
टट्टी की आड़ में है मज़ा कुछ शिकार का
रियाज़ ख़ैराबादी
कली चमन में खिली तो मुझे ख़याल आया
किसी के बंद-ए-क़बा की गिरह खुली होगी
रियाज़ ख़ैराबादी
ख़ुदा आबाद रक्खे मय-कदे को
बहुत सस्ते छुटे दुनिया-ओ-दीं से
रियाज़ ख़ैराबादी
ख़ुदा के हाथ है बिकना न बिकना मय का ऐ साक़ी
बराबर मस्जिद-ए-जामे के हम ने अब दुकाँ रख दी
रियाज़ ख़ैराबादी
किस किस तरह बुलाए गए मय-कदे में आज
पहुँचे बना के शक्ल जो हम रोज़ा-दार की
रियाज़ ख़ैराबादी
किसी का हंस के कहना मौत क्यूँ आने लगी तुम को
ये जितने चाहने वाले हैं सब बे-मौत मरते हैं
रियाज़ ख़ैराबादी
कोई मुँह चूम लेगा इस नहीं पर
शिकन रह जाएगी यूँही जबीं पर
रियाज़ ख़ैराबादी
कुछ भी हो 'रियाज़' आँख में आँसू नहीं आते
मुझ को तो किसी बात का अब ग़म नहीं होता
रियाज़ ख़ैराबादी
क्या मज़ा देती है बिजली की चमक मुझ को 'रियाज़'
मुझ से लिपटे हैं मिरे नाम से डरने वाले
रियाज़ ख़ैराबादी