वो बोले वस्ल की हाँ है तो प्यारी प्यारी रात
कहाँ से आई ये अल्लाह की सँवारी रात
रियाज़ ख़ैराबादी
वो जोबन बहुत सर उठाए हुए हैं
बहुत तंग बंद-ए-क़बा है किसी का
रियाज़ ख़ैराबादी
वो पूछते हैं शौक़ तुझे है विसाल का
मुँह चूम लूँ जवाब ये है इस सवाल का
रियाज़ ख़ैराबादी
ये कम-बख़्त इक जहान-ए-आरज़ू है
न हो कोई हमारा दिल हो हम हूँ
रियाज़ ख़ैराबादी
ये मय-कदा है कि मस्जिद ये आब है कि शराब
कोई भी ज़र्फ़ बराए वुज़ू नहीं बाक़ी
रियाज़ ख़ैराबादी
ये क़ैस-ओ-कोहकन के से फ़साने बन गए कितने
किसी ने टुकड़े कर के सब हमारी दास्ताँ रख दी
रियाज़ ख़ैराबादी
ज़रा जो हम ने उन्हें आज मेहरबाँ देखा
न हम से पूछिए क्या रंग-ए-आसमाँ देखा
रियाज़ ख़ैराबादी
ज़ेर-ए-मस्जिद मय-कदा में मय-कदे में मस्त-ए-ख़्वाब
चौंक उठा जब दी मोअज़्ज़िन ने अज़ाँ बाला-ए-सर
रियाज़ ख़ैराबादी
ज़र्फ़-ए-वज़ू है जाम है इक ख़म है इक सुबू
इक बोरिया है मैं हूँ मिरी ख़ानक़ाह है
रियाज़ ख़ैराबादी