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जी उठे हश्र में फिर जी से गुज़रने वाले | शाही शायरी
ji uThe hashr mein phir ji se guzarne wale

ग़ज़ल

जी उठे हश्र में फिर जी से गुज़रने वाले

रियाज़ ख़ैराबादी

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जी उठे हश्र में फिर जी से गुज़रने वाले
याँ भी पैदा हुए फिर आप पे मरने वाले

चूस कर किस ने छुड़ाई है मिस्सी होंठों की
सामने मुँह तो करें बात न करने वाले

शब-ए-मातम की उदासी है सुहानी कितनी
छाँव में तारों की निकले हैं सँवरने वाले

हम तो समझे थे कि दुश्मन पे उठाया ख़ंजर
तुम ने जाना कि हमीं तुम पे हैं मरने वाले

पी के आए हैं कहीं हाथ न बहके वाइज़
दाढ़ी कतरें न कहीं जेब कतरने वाले

सिन ही क्या है अभी बचपन ही जवानी में शरीक
सो रहें पास मिरे ख़्वाब में डरने वाले

हाथ गुस्ताख़ हैं उठ जाएँ न ये दामन पर
बच के निकलें मिरे मरक़द से गुज़रने वाले

नज़्अ' में हश्र के वा'दे ने ये तस्कीं बख़्शी
चैन से सो रहे मुँह ढाँप के मरने वाले

अपने दामन को सँभाले हुए भोले-पन से
वो चले आते हैं दिल ले के मुकरने वाले

सब्र की मेरे मुझे दाद ज़रा दे देना
ओ मिरे हश्र के दिन फ़ैसला करने वाले

आती है हूर-ए-जिनाँ ख़ल्वत-ए-वाइज़ के लिए
क़ब्र में उतरेंगे मिम्बर से उतरने वाले

तेरे आशिक़ जो गए हश्र में ये शोर उठा
जाएँ दोज़ख़ में दम सर्द के भरने वाले

ज़ेर-ए-पा दिल ही बिछे हों कि हैं ख़ूगर उस के
फ़र्श-ए-गुल पर भी नहीं पावँ वो धरने वाले

अश्क-ए-ग़म ऐसे नहीं हैं जो उमँड कर रह जाएँ
हैं ये तूफ़ान मिरे सर से गुज़रने वाले

क्या मज़ा देती है बिजली की चमक मुझ को 'रियाज़'
मुझ से लपटे हैं मिरे नाम से डरने वाले