कोई भी घर में समझता न था मिरे दुख सुख
एक अजनबी की तरह मैं ख़ुद अपने घर में था
राजेन्द्र मनचंदा बानी
किसी मक़ाम से कोई ख़बर न आने की
कोई जहाज़ ज़मीं पर न अब उतरने का
राजेन्द्र मनचंदा बानी
इस तमाशे में तअस्सुर कोई लाने के लिए
क़त्ल 'बानी' जिसे होना था वो किरदार था मैं
राजेन्द्र मनचंदा बानी
इस क़दर ख़ाली हुआ बैठा हूँ अपनी ज़ात में
कोई झोंका आएगा जाने किधर ले जाएगा
राजेन्द्र मनचंदा बानी
इस अँधेरे में न इक गाम भी रुकना यारो
अब तो इक दूसरे की आहटें काम आएँगी
राजेन्द्र मनचंदा बानी
हरी सुनहरी ख़ाक उड़ाने वाला मैं
शफ़क़ शजर तस्वीर बनाने वाला मैं
राजेन्द्र मनचंदा बानी
दिन को दफ़्तर में अकेला शब भरे घर में अकेला
मैं कि अक्स-ए-मुंतशिर एक एक मंज़र में अकेला
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ढलेगी शाम जहाँ कुछ नज़र न आएगा
फिर इस के ब'अद बहुत याद घर की आएगी
राजेन्द्र मनचंदा बानी
चलो कि जज़्बा-ए-इज़हार चीख़ में तो ढला
किसी तरह इसे आख़िर अदा भी होना था
राजेन्द्र मनचंदा बानी