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दिन को दफ़्तर में अकेला शब भरे घर में अकेला | शाही शायरी
din ko daftar mein akela shab bhare ghar mein akela

ग़ज़ल

दिन को दफ़्तर में अकेला शब भरे घर में अकेला

राजेन्द्र मनचंदा बानी

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दिन को दफ़्तर में अकेला शब भरे घर में अकेला
मैं कि अक्स-ए-मुंतशिर एक एक मंज़र में अकेला

उड़ चला वो इक जुदा ख़ाका लिए सर में अकेला
सुब्ह का पहला परिंदा आसमाँ भर में अकेला

कौन दे आवाज़ ख़ाली रात के अंधे कुएँ में
कौन उतरे ख़्वाब से महरूम बिस्तर में अकेला

उस को तन्हा कर गई करवट कोई पिछले पहर की
फिर उड़ा भागा वो सारा दिन नगर भर में अकेला

एक मद्धम आँच सी आवाज़ सरगम से अलग कुछ
रंग इक दबता हुआ सा पूरे मंज़र में अकेला

बोलती तस्वीर में इक नक़्श लेकिन कुछ हटा सा
एक हर्फ़-ए-मो'तबर लफ़्ज़ों के लश्कर में अकेला

जाओ मौजो मेरी मंज़िल का पता क्या पूछती हो
इक जज़ीरा दूर उफ़्तादा समुंदर में अकेला

जाने किस एहसास ने आगे नहीं बढ़ने दिया था
अब पड़ा हूँ क़ैद मैं रस्ते के पत्थर में अकेला

हू-ब-हू मेरी तरह चुप-चाप मुझ को देखता है
इक लरज़ता ख़ूब-सूरत अक्स साग़र में अकेला