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इधर की आएगी इक रौ उधर की आएगी | शाही शायरी
idhar ki aaegi ek rau udhar ki aaegi

ग़ज़ल

इधर की आएगी इक रौ उधर की आएगी

राजेन्द्र मनचंदा बानी

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इधर की आएगी इक रौ उधर की आएगी
कि मेरे साथ तो मिट्टी सफ़र की आएगी

ढलेगी शाम जहाँ कुछ नज़र न आएगा
फिर इस के ब'अद बहुत याद घर की आएगी

न कोई जा के उसे दुख मिरे सुनाएगा
न काम दोस्ती अब शहर भर की आएगी

अभी बुलंद रखो यारो आख़िरी मशअल
इधर तो पहली किरन क्या सहर की आएगी

कुछ और मोड़ गुज़रने की देर है बानी
सदा न गर्द किसी हम-सफ़र की आएगी