बा'द मरने के मिरी क़ब्र पे आया 'ग़ाफ़िल'
याद आई मिरे ईसा को दवा मेरे बा'द
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
अपने मजनूँ की ज़रा देख तो बे-परवाई
पैरहन चाक है और फ़िक्र सिलाने की नहीं
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
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अगर उर्यानी-ए-मजनूँ पे आता रहम लैला को
बना देती क़बा वो चाक कर के पर्दा महमिल का
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
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आशिक़ को न ले जाए ख़ुदा ऐसी गली में
झाँके न जहाँ रौज़न-ए-दीवार से कोई
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
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आए कभी तो दश्त से वो शहर की तरफ़
मजनूँ के पाँव में जो न ज़ंजीर-ए-जादा हो
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
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