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मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल शायरी | शाही शायरी

मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल शेर

32 शेर

कौन दरिया-ए-मोहब्बत से उतर सकता है पार
कश्ती-ए-फ़रहाद आख़िर कोह से टकरा गई

मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल




जी में आता है मय-कशी कीजे
ताक कर कोई साया-दार दरख़्त

मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल




इस्लाम का सुबूत है ऐ शैख़ कुफ़्र से
तस्बीह टूट जाए जो ज़ुन्नार टूट जाए

मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल




इक बोसा माँगता हूँ मैं ख़ैरात-ए-हुस्न की
दो माल की ज़कात कि दौलत ज़ियादा हो

मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल




हक़्क़-ए-मेहनत उन ग़रीबों का समझते गर अमीर
अपने रहने का मकाँ दे डालते मज़दूर को

मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल




गुलशन-ए-इश्क़ का तमाशा देख
सर-ए-मंसूर फल है दार दरख़्त

मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल




फ़रियाद की आती है सदा सीने से हर दम
मेरा दिल-ए-नालाँ है कि अंग्रेज़ी घड़ी है

मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल




दुश्मन के काम करने लगा अब तो दोस्त भी
तू ऐ रक़ीब दरपय-ए-आज़ार है अबस

मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल




बरसों ख़याल-ए-यार रहा कुछ खिचा खिचा
इक दम मिरा जो और तरफ़ ध्यान बट गया

मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल