हम पे सौ ज़ुल्म-ओ-सितम कीजिएगा
एक मिलने को न कम कीजिएगा
मीर मोहम्मदी बेदार
हवास-ओ-होश को छोड़ आप दिल गया उस पास
जब अहल-ए-फ़ौज ही मिल जाएँ क्या सिपाह करे
मीर मोहम्मदी बेदार
हो गए दौर में उस चश्म के मय-ख़ाने ख़राब
न कहीं शीशा रहा और न कहीं जाम रहा
मीर मोहम्मदी बेदार
हूँ मैं वो दीवाना-ए-नाज़ुक-मिज़ाज-ए-गुल-रुख़ाँ
कीजिए ज़ंजीर जिस को साया-ए-ज़ंजीर से
मीर मोहम्मदी बेदार
इस खेल से कह अपनी मिज़ा से कि बाज़ आए
आलम को नेज़ा-बाज़ी से ज़ेर-ओ-ज़बर किया
मीर मोहम्मदी बेदार
जाता है चला क़ाफ़िला-ए-अश्क शब ओ रोज़
मालूम नहीं उस का इरादा है कहाँ का
मीर मोहम्मदी बेदार
जाते हो सैर-ए-बाग़ को अग़्यार साथ हो
जो हुक्म हो तो ये भी गुनहगार साथ हो
मीर मोहम्मदी बेदार