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हम पे सौ ज़ुल्म-ओ-सितम कीजिएगा | शाही शायरी
hum pe sau zulm-o-sitam kijiyega

ग़ज़ल

हम पे सौ ज़ुल्म-ओ-सितम कीजिएगा

मीर मोहम्मदी बेदार

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हम पे सौ ज़ुल्म-ओ-सितम कीजिएगा
एक मिलने को न कम कीजिएगा

भागते ख़ल्क़ से कुछ काम नहीं
क़स्द है आप से रम कीजिएगा

गर यही ज़ुल्फ़ ओ यही मुखड़ा है
ग़ारत-ए-दैर-ओ-हरम कीजिएगा

गर रही यूँही गुल-फ़िशानी-ए-अश्क
जा-ब-जा रश्क-ए-इरम कीजिएगा

जी में है आज बजाए मक्तूब
यही बैत उस को रक़म कीजिएगा

मेहरबानी से फिर ऐ बंदा-नवाज़
कहिए किस रोज़ करम कीजिएगा

नींद आवेगी न तन्हा 'बेदार'
ता न ख़्वाब उस से बहम कीजिएगा