हम पे सौ ज़ुल्म-ओ-सितम कीजिएगा
एक मिलने को न कम कीजिएगा
भागते ख़ल्क़ से कुछ काम नहीं
क़स्द है आप से रम कीजिएगा
गर यही ज़ुल्फ़ ओ यही मुखड़ा है
ग़ारत-ए-दैर-ओ-हरम कीजिएगा
गर रही यूँही गुल-फ़िशानी-ए-अश्क
जा-ब-जा रश्क-ए-इरम कीजिएगा
जी में है आज बजाए मक्तूब
यही बैत उस को रक़म कीजिएगा
मेहरबानी से फिर ऐ बंदा-नवाज़
कहिए किस रोज़ करम कीजिएगा
नींद आवेगी न तन्हा 'बेदार'
ता न ख़्वाब उस से बहम कीजिएगा
ग़ज़ल
हम पे सौ ज़ुल्म-ओ-सितम कीजिएगा
मीर मोहम्मदी बेदार