तेरे मिज़्गाँ ही न पहलू मारते हैं तेरे
हम-सरी रखते हैं अबरू भी दम-ए-शमशीर से
देख ये करता है ग़म की लज़्ज़तें हम पर हराम
हो समझ कर आश्ना ऐ नाला टुक तासीर से
हूँ मैं वो दीवाना-ए-नाज़ुक-मिज़ाज-ए-गुल-रुख़ाँ
कीजिए ज़ंजीर जिस को साया-ए-ज़ंजीर से
सोज़-ए-दिल क्यूँकर करूँ उस शोख़ के आगे बयाँ
शम्अ की मानिंद जलती है ज़बाँ तक़रीर से
गरचे हों 'बेदार' ग़र्क़-ए-मासियत सर-ता-ब-पा
पुर-उमीद-ए-मग़फ़िरत है शब्बर-ओ-शब्बीर से
ग़ज़ल
तेरे मिज़्गाँ ही न पहलू मारते हैं तेरे
मीर मोहम्मदी बेदार