उसी के होंटों के फूल बाब-ए-क़ुबूल चूमें
सो हम उठा लाएँ अब के हर्फ़-ए-दुआ उसी का
कबीर अजमल
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वो मेरे ख़्वाब चुरा कर भी ख़ुश नहीं 'अजमल'
वो एक ख़्वाब लहू में जो फैल जाना था
कबीर अजमल
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ये ग़म मिरा है तो फिर ग़ैर से इलाक़ा क्या
मुझे ही अपनी तमन्ना का बार ढोने दे
कबीर अजमल
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यूँ ख़ुश न हो ऐ शहर-ए-निगाराँ के दर ओ बाम
ये वादी-ए-सफ़्फ़ाक भी रहने की नहीं है
कबीर अजमल
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ज़मीर ओ ज़ेहन में इक सर्द जंग जारी है
किसे शिकस्त दूँ और किस पे फ़त्ह पाऊँ मैं
कबीर अजमल
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ज़िंदा कोई कहाँ था कि सदक़ा उतारता
आख़िर तमाम शहर ही ख़ाशाक हो गया
कबीर अजमल
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