अभी तो फ़ैसला बाक़ी है शाम होने दे
सहर की ओट में महताब-ए-जाँ को रोने दे
तिरी नज़र के इशारे न रौशनी बन जाएँ
तो फिर ये रात कहाँ जुगनुओं को सोने दे
बहुत हुआ तो हवाओं के साथ रो लूँगा
अभी तो ज़िद है मुझे कश्तियाँ डुबोने दे
हमारे ब'अद भी काम आएगी जुनूँ की आग
ये आग ज़िंदा है इस को न सर्द होने दे
सदी से मांगेगी अगली सदी हिसाब-ए-गुनह
मिरे सरिश्क को लम्हों के दाग़ धोने दे
ये ग़म मिरा है तो फिर ग़ैर से इलाक़ा क्या
मुझे ही अपनी तमन्ना का बार ढोने दे
बबूल सब्ज़ है बाँधे हिसार-ए-नाज़ 'अजमल'
मुझे भी अपनी ज़मीं में चिनार बोने दे
ग़ज़ल
अभी तो फ़ैसला बाक़ी है शाम होने दे
कबीर अजमल