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वो मौज-ए-हवा जो अभी बहने की नहीं है | शाही शायरी
wo mauj-e-hawa jo abhi bahne ki nahin hai

ग़ज़ल

वो मौज-ए-हवा जो अभी बहने की नहीं है

कबीर अजमल

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वो मौज-ए-हवा जो अभी बहने की नहीं है
हम जानते हैं आप से कहने की नहीं है

यूँ ख़ुश न हो ऐ शहर-ए-निगाराँ के दर ओ बाम
ये वादी-ए-सफ़्फ़ाक भी रहने की नहीं है

ऐ काश कोई कोह-ए-निदा ही से पुकारे
दीवार-ए-सुकूत आप ही ढहने की नहीं है

क्यूँ अक्स-ए-गुरेज़ाँ से चमक बुझ गई दिल की
ये रात तो महताब के गहने की नहीं है

रक़्क़ासा-ए-सहरा-ए-जुनूँ भी है यही मौज
यक चश्मा-ए-ख़ूँ-नाब से बहने की नहीं है

इक तरफ़ा तमाशा है मुझे शोख़ी-ए-गुफ़्तार
आशुफ़्तगी-ए-'मीर' भी सहने की नहीं है