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उफ़ुक़ के आख़िरी मंज़र में जगमगाऊँ मैं | शाही शायरी
ufuq ke aaKHiri manzar mein jagmagaun main

ग़ज़ल

उफ़ुक़ के आख़िरी मंज़र में जगमगाऊँ मैं

कबीर अजमल

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उफ़ुक़ के आख़िरी मंज़र में जगमगाऊँ मैं
हिसार-ए-ज़ात से निकलूँ तो ख़ुद को पाऊँ मैं

ज़मीर ओ ज़ेहन में इक सर्द जंग जारी है
किसे शिकस्त दूँ और किस पे फ़त्ह पाऊँ मैं

तसव्वुरात के आँगन में चाँद उतरा है
रविश रविश तिरी चाहत से जगमगाऊँ मैं

ज़मीं की फ़िक्र में सदियाँ गुज़र गईं 'अजमल'
कहाँ से कोई ख़बर आसमाँ की लाऊँ मैं