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जुरअत क़लंदर बख़्श शायरी | शाही शायरी

जुरअत क़लंदर बख़्श शेर

127 शेर

उस शख़्स ने कल हातों ही हातों में फ़लक पर
सौ बार चढ़ाया मुझे सौ बार उतारा

जुरअत क़लंदर बख़्श




उस घर के दर पे जब हुए हम ख़ाक तब खुला
दरवाज़ा आने जाने को और याँ है दूसरा

जुरअत क़लंदर बख़्श




तुझ सा जो कोई तुझ को मिल जाएगा तो बातें
मेरी तरह से तू भी चुपका सुना करेगा

जुरअत क़लंदर बख़्श




सभी इनआम नित पाते हैं ऐ शीरीं-दहन तुझ से
कभू तू एक बोसे से हमारा मुँह भी मीठा कर

जुरअत क़लंदर बख़्श




शायद उसी का ज़िक्र हो यारो मैं इस लिए
सुनता हूँ गोश-ए-दिल से हर इक मर्द-ओ-ज़न की बात

जुरअत क़लंदर बख़्श




शागिर्द-ए-रशीद आप सा हूँ शैख़-जी साहिब
कुछ इल्म ओ अमल तुम ने न शैतान में छोड़ा

जुरअत क़लंदर बख़्श




सर दीजे राह-ए-इश्क़ में पर मुँह न मोड़िए
पत्थर की सी लकीर है ये कोह-कन की बात

जुरअत क़लंदर बख़्श




रोऊँ तो ख़ुश हो के पिए है वो मय
समझे है मौसम इसे बरसात का

जुरअत क़लंदर बख़्श




रखे है लज़्ज़त-ए-बोसा से मुझ को गर महरूम
तो अपने तू भी न होंटों तलक ज़बाँ पहुँचा

जुरअत क़लंदर बख़्श