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जमीलुद्दीन आली शायरी | शाही शायरी

जमीलुद्दीन आली शेर

29 शेर

इक गहरा सुनसान समुंदर जिस के लाख बहाओ
तड़प रही है उस की इक इक मौज पे जीवन-नाव

जमीलुद्दीन आली




हर इक बात में डाले है हिन्दू मुस्लिम की बात
ये ना जाने अल्हड़ गोरी प्रेम है ख़ुद इक ज़ात

जमीलुद्दीन आली




एक बिदेसी नार की मोहनी सूरत हम को भाई
और वो पहली नार थी भय्या जो निकली हरजाई

जमीलुद्दीन आली




एक अजीब राग है एक अजीब गुफ़्तुगू
सात सुरों की आग है आठवीं सुर की जुस्तुजू

जमीलुद्दीन आली




दोहे कबित कह कह कर 'आली' मन की आग बुझाए
मन की आग बुझी न किसी से उसे ये कौन बताए

जमीलुद्दीन आली




धीरे धीरे कमर की सख़्ती कुर्सी ने ली चाट
चुपके चुपके मन की शक्ति अफ़सर ने दी काट

जमीलुद्दीन आली




दरिया दरिया घूमे माँझी पेट की आग बुझाने
पेट की आग में जलने वाला किस किस को पहचाने

जमीलुद्दीन आली




बुर्क़ा-पोश पठानी जिस की लाज में सौ सौ रूप
खुल के न देखी फिर भी देखी हम ने छाँव में धूप

जमीलुद्दीन आली




बिखेरते रहो सहरा में बीज उल्फ़त के
कि बीज ही तो उभर कर शजर बनाते हैं

जमीलुद्दीन आली